क्या सच में सब का मालिक एक है ?
प्रभु यीशु मसीह के मधुर और मीठे नाम में
जय मसीह की कहता हूं।
क्या सच में सब का मालिक एक है? कृपा कर के पूरा पड़े ।
तो पूरी बाद समझ में आयेगा। और अच्छा लागे आप को
तो एक शेयर जरुर करे और सब को बदाये।
अगर ऐसा है तो फिर समाज में इतना बैरभाव क्यों? क्या
हम सच में मानते हैं कि सबका मालिक एक है या बस कहने
के लिये कह देते हैं? दुनिया में बहुत से धर्म हैं। उन सबके
रीतिरिवाज अलग अलग हैं और वे सभी इस बात को तूल
देते हैं कि उनका ही रास्ता ठीक है। तो क्या बाकी रास्ते गलत हैं?
क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं? हमारे यहाँ तो ऐसा होता हैया
हम तो यह मानते हैं यह बात हर जगह धार्मिक विषय पर
हो रही बातचीत में सुनाई देती रहती है।
क्या ईश्वर भी ऐसे ही बँटा हुआ है?
बहुत से समाजसेवक, गुरु और संत/पैगम्बर इस बात को बताने
की कोशिश करते रहे हैं कि समाज में भेदभाव नहीं होना चाहिये
हमें सब धर्मों के लोगों को एक ही दृष्टि से देखना चाहिये फिर
भी भेदभाव भी है और ऊँच-नीच भी। ईश्वर इंसान में भेद नहीं
करता और सिखाता है कि सब आपस में प्रेम करें और ईश्वर से
भी प्रेम करें, तौभी ऐसा होता नहीं है क्योंकि मनुष्य ईश्वर की नहीं
सुनता बल्कि अपने ही तौरतरीकों में खोया रहता है। हरेक धर्म के
अपने अपने शास्त्र हैं और अपने अपने तौर-तरीके। सभी ईश्वर को
पाना चाहते हैं परंतु फिर भी उसमें अंतर मानते हैं। क्या सच में हिंदू
को रचने वाला और ईसाई को रचने वाला ईश्वर अलग अलग है।
अगर नहीं तो फिर हम ईश्वर को बाँटकर क्यों देखते हैं? कुछ
धर्मावलंबी अधिक उदार है इसलिये वे कह देते हैं कि ईश्वर एक है
परंतु उसके रूप अलग अलग हैं। पर यदि ऐसा है तो अलग अलग
धर्मों में उसकी शिक्षायें और उसका स्वरूप हमें एकदम
भिन्न क्यों नज़र आता है? विचार करें।
मेरे विचार में इन सारी बातों का एक ही उत्तर है ईश्वर ने कोई
धर्म नहीं बनाया है। उसने तो इंसान की रचना की और इंसान ने
धर्म की। सबका मालिक वो ही एक ईश्वर है जिसनें हमारी सृष्टि
की है। यदि आज ईश्वर अलग अलग पालों में बँटा हुआ है तो
इसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं है। वह तो एक ही है और सबसे प्रेम
करता है। मैंने बाइबल पढ़ी है, उसमें लिखा है कि परमेश्वर एक ही
है 1 तिमुथियुस 2:5 और यह कि परमेश्वर ने सारे जगत से ऐसा
प्रेम रखा कि उसने एकलौता पुत्र दे दिया ताकि जो कोई उसपर
विश्वास करे वो नाश न हो परंतु अनंत जीवन पाये यूहन्ना 3:16।
यह मुझे भाता है और मैं इसमें विश्वास करता हूँ। मेरे विचार में ईश्वर
का धर्म से कोई लेना देना नहीं है, धर्म तो मात्र मनुष्य की ईश्वर के
प्रति सोच और उसको पाने के प्रयास का एक नतीजा है।
पर हम ईश्वर को खोजते ही क्यों हैं? तो इसका जवाब यह
है कि ईश्वर ने जब सबसे पहले इंसान की सृष्टि की, तो उसे
उसने अपने पवित्र स्वरूप में बनाया, परंतु अपनी स्वतंत्र इच्छा
और अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए पहले इंसान ने परमेश्वर
की आज्ञा को तोड़ दिया और यही पहला पाप हुआ। इसके बाद
तो पाप का यह बीज संतानोत्पत्ति के साथ ही एक पीढ़ी से
दूसरी तक अपने आप फैलता चला गया है। एक छोटे बच्चे
को कोई पाप करना नहीं सिखाता परंतु वह अपनेआप ही
उम्र के बढ़ने के साथ पाप करने लगता है। अपने मन में
हम जानते हैं कि हम सभी ने पाप किया है। चाहे सोच
से या वचनों से, या फिर अपने कर्मों के द्वारा। फिर भी
हममें अपने सृष्टिकर्ता ईश्वर से मिलन करने की इच्छा
रहती है क्योंकि शुरूआत में हम उसी के स्वरूप में रचे गये
हैं और यही कारण है कि हमारा अंतर्मन एक ईश्वर
की तलाश में रहता है।
पाप से छुटकारा
परमेश्वर का वचन बाइबल इस बात कि पुष्ठि करता है और कहता है
कि परमेश्वर की नज़र में एक भी धर्मी नहीं है (रोमियों 3:10) बल्कि
सबने पाप किया है और उसकी महिमा से रहित हैं रोमियों 3:23। और
उसमें यह भी लिखा है कि पाप की कीमत तो मृत्यु है रोमियों 6:23
अर्थात हमेशा के लिये ईश्वर से दूरी और नर्क में जीवन। तो फिर हमारा
कल्याण कैसे हो सकता है? क्या अच्छे कर्मों, विचारों और वचनों के द्वारा?
नहीं क्योंकि हम अगर अपना वर्तमान और भविष्य सुधार भी लें तो अपने
भूतकाल के लिये तो हमें सजा मिलेगी ही। तो क्या सन्यास साधना और
कर्मकाण्डों के द्वारा? नहीं, क्योंकि पुराने पाप तो हैं और धर्मियों के उद्धार
तथा पापियों के नाश की बात तो कहीं धर्मशास्त्रों में भी लिखी है।
अर्थात जब जब धरती पर धर्म की हानि होती है और पाप बढ़
जाता है तब ईश्वर पापियों का नाश करने के लिये अवतार लेते
हैं ताकि धर्म की संस्थापना करें।
हमें पापों की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी अन्यथा पाप तो नाश
की ओर ही लेकर जाता है। फिर हमें विनाश से कौन बचा सकता है?
तो फिर क्या कोई भी रास्ता नहीं है?
एक रास्ता है। धर्म के बजाय हम ईश्वर की
ओर नज़रे लगाएँ उसपर विश्वास उनके वचनों
पर विश्वाश करे आमीन
आगे वचन
क्योंकि व्यवस्था जिस में आने वाली अच्छी वस्तुओं का प्रतिबिम्ब ह
पर उन का असली स्वरूप नहीं, इसलिये उन एक ही प्रकार के बलिदानों
के द्वारा, जो प्रति वर्ष अचूक चढ़ाए जाते हैं, पास आने वालों
को कदापि सिद्ध नहीं कर सकतीं।
नहीं तो उन का चढ़ाना बन्द क्यों न हो जाता? इसलिये कि
जब सेवा करने वाले एक ही बार शुद्ध हो जाते तो फिर
उन का विवेक उन्हें पापी न ठहराता।
परन्तु उन के द्वारा प्रति वर्ष पापों का स्मरण हुआ करता है।
क्योंकि अनहोना है, कि बैलों और बकरों का लोहू पापों को दूर करे।
इसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और
भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया।
होम-बलियों और पाप-बलियों से तू प्रसन्न नहीं हुआ।
तब मैं ने कहा देख मैं आ गया हूं पवित्र शास्त्र में मेरे
विषय में लिखा हुआ है ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं।
ऊपर तो वह कहता है कि न तू ने बलिदान और भेंट और
होम-बलियों और पाप-बलियों को चाहा, और न उन से प्रसन्न
हुआ यद्यपि ये बलिदान तो व्यवस्था के अनुसार चढ़ाए जाते हैं।
फिर यह भी कहता है, कि देख, मैं आ गया हूं, ताकि तेरी इच्छा
पूरी करूं निदान वह पहिले को उठा देता है ताकि दूसरे को नियुक्त करे।
उसी इच्छा से हम यीशु मसीह की देह के एक ही बार बलिदान
चढ़ाए जाने के द्वारा पवित्र किए गए हैं।
और हर एक याजक तो खड़े होकर प्रति दिन सेवा करता है
और एक ही प्रकार के बलिदान को जो पापों को कभी भी
दूर नहीं कर सकते; बार बार चढ़ाता है।
पर यह व्यक्ति तो पापों के बदले एक ही बलिदान सर्वदा के
लिये चढ़ा कर परमेश्वर के दाहिने जा बैठा।
और उसी समय से इस की बाट जोह रहा है
कि उसके बैरी उसके पांवों के नीचे की पीढ़ी बनें।